अंधविश्वास और कई कष्टकारी कुरीतियों जैसे अभिशापों से अभिशप्त भारतीय जनजीवन को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले राजा राममोहन राय भारतीय विभूतियों के दैदीप्यमान नक्षत्रों में से एक थे। ऐसे महापुरुष का जन्म पश्चिम बंगाल के वर्द्धमान जिलान्तर्गत राधा नगर ग्राम में एक संभ्रान्त कट्टर ब्राह्मण परिवार में 22 मई 1772 को हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के दौरान उन्होंने संस्कृत और बंगला की शिक्षा प्राप्त की तथा 12 वर्ष की आयु में वे फारसी और अरबी की सेवा में लगभग 14 वर्ष तक रहे। इस बीच उन्होंने अंग्रेजी भी सीख ली तथा ईसाई धर्म ग्रंथों के अध्ययन हेतु ग्रीक लैटिन और हिब्रु भाषा भी सीखी।
उनके नाम के साथ प्रयुक्त राजा शब्द वंशानुगत न होकर बहुआयामी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व से अर्जित उपाधि था। जिसे इंगलैंड जाते वक्त मुगल सम्राट ने प्रदान किया था। बाह्माडम्बर, पारस्परिक वैमनस्यता, अस्पृश्यता, गुलामी, सामाजिक व धार्मिक कुप्रथाओं की भयावह काली कोठरी में जागरण दीप प्रज्वलित कर उस तम को भगाने तथा भारत को एक नवयुवक के पथ पर अग्रसर करने हेतु प्रयत्नशील वह प्रथम महापुरुष थे। इसी कारण भारतीय पुनर्जागरण के जनक कहलाने का गौरव उनको प्राप्त हुआ। जैसा कि नन्दलाल चटर्जी ने भी कहा है। राजा राममोहन राय प्रतिक्रिया तथा प्रगति के मध्य बिन्दु थे। वस्तुतः वे भारतीय पुनर्जागरण के प्रभात तारा थे।
एक साथ कई भाषाओं के जानकार होने के कारण सभी धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर पाने में वे समर्थ हो सके, तत्पश्चात वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सभी धर्मों में एकेश्वरवाद का ही प्रचलन है। इसलिए वे धर्मों की मौलिक एकता पर विश्वास करते थे। सभी धर्मों में व्याप्त आडम्बर और अंधविश्वास त्याज्य हैं। जबकि सभी धर्मों के सार स्वीकार्य, इस आधार पर उन्होंने हिन्दू धर्म के मूर्ति पूजा व अंधविश्वास का खुलकर विरोध किया। जिसके परिणामस्वरूप इन्हें माँ-बाप के साथ ही पत्नी के कोप का भी शिकार होना पड़ा।
इसी तरह उन्होंने ईसा मसीह के दैवी होने तथा मानव को अभिमंत्रित व अभिशापित में विभाजित करने वाली इस्लाम की अनन्यता की भी आलोचना की, परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म के आत्मा वय ब्रह्म (मनुष्य देवता तुल्य है)। इस प्रकार यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि वे धार्मिक सहिष्णुता के प्रबल पक्षधर थे और उनके हृदय सागर में पवित्र और सिर्फ पवित्र भावधारा की कई नदियां आकर मिली थीं। धर्म के संदर्भ में उनके बारे में मॉनियर विलियम्स ने लिखा है-राजा राममोहन राय सम्भवतः तुलनात्मक धर्मशास्त्र के प्रथम सच्चे अन्वेषक थे।
समाज सुधारक के रूप में राजा साहब विशेष रूप से याद किए जाते हैं। सती प्रथा, बालविवाह, जाति प्रथा, अस्पृश्यता जैसे दुःसह्य संक्रामक रोगों से ग्रसित और विकृत भारतीय समाज में नवचेतना का संचार कर उसे सुधारने के जो प्रयास उन्होंने किए वह सिर्फ सराहनीय ही नहीं, स्तुत्य भी हैं। उनके ही अथक प्रयास के परिणामस्वरूप सती प्रथा जैसी अमानुषिक दानवी का संहार संभव हो सका, क्योंकि लॉर्ड विलियम बैंटिक ने इसे 1829 ई. में गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया था। मनु स्मृति का संदर्भ पेश करते हुए उन्होंने भारतीय विधवाओं को दहकती चिता से उठाकर सादगी का जीवन व्यतीत करने को प्रेरित किया।
इसके साथ ही राष्ट्रीय एकता व अखंडता पर तीखा प्रहार करने वाली जाति प्रथा के उन्मूलनार्थ वे एक समर्पित कर्मवीर थे। ऊंच-नीच व अस्पृश्यता की भावना को भी उन्होंने मानवता का महान शत्रु बताया। इससे मुक्ति हेतु वे अंतर्जातीय विवाह के पूर्ण हिमायती थे। स्वयं उनके ही शब्दों में-जाति भेद, जिससे हिन्दू समाज अनेक जाट-उपजाति में बंट गया है, हमारी गुलामी का प्रमुख कारण रहा है। एकता के अभाव में ही हम दासता की जंजीर में जकड़े रहे।
राजनीतिक चिन्तन से ओत-प्रोत राजा साहब भारत की स्वतंत्रता के प्रबल हिमायती थे और उनके राजनीतिक विचार बेंथम के विचारों से अधिक मेल खाते थे। उनका प्रतिपादन था कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए वरदान है, जिससे भारतीय अधिक सभ्य और सुसंस्कृत हों तथा बाद में आजादी हासिल कर लेंगे। ब्रिटिश शासन का भय होने के बावजूद भी वे उसकी विसंगतियों के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करते रहे और विधि सर्वोपरिता, विचाराभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, राजनीतिक व धार्मिक स्वतंत्रता के लिए तथा नागरिकों के जीवन, सम्पत्ति सह-अधिकार रक्षार्थ सदैव प्रयत्नशील रहे।
उचित न्याय व्यवस्था हेतु वे स्वतंत्र न्यायपालिका पर बल देते थे तथा इसके लिए शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को अत्यावश्यक समझते थे। भारतीय परंपराओं के प्रतिकूल तथा भ्रष्ट ब्रिटिश न्याय व्यवस्था से क्षुब्ध राजा साहब ने उसमें पर्याप्त सुधार हेतु निम्नलिखित शर्तों को रखा-जूरी प्रथा प्रारम्भ की जाए, न्यायाधीश तथा मजिस्ट्रेट के पद पृथक किए जाएं, न्यायालय की कार्यवाही लोगों के लिए खुली हों, उच्च पदों पर अधिकाधिक भारतीयों की नियुक्ति की जाए तथा भारतीय परम्पराओं की अनुकूलता हेतु भारतीय जनमत पर आधारित विधि निर्माण हो।
राजा राममोहन राय एक महान देशभक्त थे। जिनकी रगों में देशभक्ति की पवित्र भावना प्रवाहित हो रही थी। अशिक्षितों व निर्धनों की जर्जर दशा देखकर वह दयार्द्र हो उठते थे और हृदय सागर में उनके कल्याणार्थ संकल्प की लहरें हिलोरें मारने लगती थी। इसी भावना से प्रेरित होकर 1830 में उन्होंने माफी की भूमि अथवा दान स्वरूप दी गई भूमि को पुनः हड़प लेने के विरोध में आंदोलन चलाया। वे पवित्र हृदय से भारतवासियों की सर्वतोन्मुखी स्वतंत्रता और भलाई के हिमायती थे। उनमें राजनीतिक जागरण लाने के लिए ही उन्होंने संवाद कौमुदी और मिशन उल अख़बार का संपादन किया तथा प्रशासन में सुधार लाने के लिए आंदोलन चलाया।
राजा राममोहन राय एक महान शिक्षा-शास्त्री भी थे। वे भारत के विकास के लिए पाश्चात्य शिक्षा और अंग्रेजों को आवश्यक मानते थे। इतना होते हुए भी उन्हें प्राचीन भारतीय साहित्य व भाषा से पूर्ण लगाव रहा, जिसका परिचायक संवाद कौमुदी का सम्पादन है इसके साथ ही 1825 में उन्होंने कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की।
ऐसे सर्वतोन्मुखी प्रतिभाशाली महापुरुष का निधन 27 दिसम्बर 1833 को ब्रिस्टल में तब हुआ जब वे इंगलैंड में भारतवासियों के कल्याण कार्य में संलग्न थे, यद्यपि आज वे हमारे बीच नहीं हैं फिर भी उनका स्मृति दीपक आज भी हमारे हृदय में जल रहा है और आने वाली पीढ़ियों के हृदय में भी जलता रहेगा। क्योंकि उनके द्वारा प्रज्वलित कई ज्योतियां आज भी प्रदीप्त होकर सम्पूर्ण भारत को प्रकाशित कर रही हैं।
जैसा कि मैकनिकोल ने भी लिखा है-राजा राममोहन राय एक नए युग के प्रवर्तक थे और उन्होंने जो ज्योति जलाई वह आज भी अनवरत जल रही है। वास्तव में उनके कार्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने पर यह कहना पड़ता है कि उनके योगदान रूपी जल से सिंचित भारत आज गर्व से प्रगति के शिखर पर विहंस रहा है। निष्कर्ष के तौर पर यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि भारतीय समाज रूपी रथ को अन्याय विसंगतियों और कु-प्रथाओं, पिछड़ापन, अशिक्षा आदि के धुंध से निकालकर प्रकाश प्रगति के पथ पर अग्रसारित करने वाले राजा साहब सफल सारथी थे।